Friday, November 15, 2013

डर गए ना तुम इस बार....

डर गए ना तुम इस बार,
जब मेरे तुम्हारी तरफ पलटते ही,
मेरे चेहरे की जगह पे दिखा तुम्हें सिर्फ,
शून्य.....
और फिर गणित के किसी समीकरण की तरह,
बढ़ने लगा वो शून्य, अनंत की ओर,
सहम गए न तुम इस बार,
जब मैं तुम्हें एक अलग ही शक्स लगी,
और मैंने कोई कोशिश भी नहीं की,
तुमसे जान पहचान बढ़ाने की,
और सुलझ गयी मैं अपने मन की
सारी गांठें खोल कर,
पर इस सीधी सादी, तुम्हारी अपनी,
जानी पहचानी डगर पर,
उलझ गए ना तुम इस बार.....
तुम्हें पहले भी चेताया था मैंने
कि मत खेलो इन खतरनाक खिलौनों से,
मत जानो मुझे अपने कमरे की
दीवार पर धँसी, जंग लगी कोई कील
कि जब भी कोट बदला, पुराना उतार कर टांग दिया
मुझपर,
अब जब पैनी धार सी चुभी मैं तुम्हें,
और चीरा लगा तुम्हारे खोखले आदर्शों के
नाज़ुक से कोट पर तो,
तड़प गए ना तुम इस बार.....
आखिर डर गए ना तुम इस बार.....



image from google



2 comments:

Anonymous said...

सटीक सार्थक एवं मार्मिक प्रस्तुति - बधाई

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।