Sunday, August 25, 2013

मेरे कान्हा....

मेरे कान्हा,
तुम्हें किसने दिया था ये अधिकार,
कि मुझे अपना बनाकर, अगिनित स्वप्न दिखा कर
अंधेरी एक रात मे चुपचाप,
मुझसे बिन कहे कुछ, बिन मिले,
चले जाओ अपने कर्तव्य पालित करने,
एक बार नहीं, बार बार, हर बार.....
चलो मैं ही अभागिन थी, पगली, नासमझ, अबोध थी,
पर अब नहीं.....
अब सदियाँ बीती हैं, युग कई बदले हैं,
और आज जो आए हो मेरे दुआरे तुम श्याम,
मुझे मनाने को, वो बीता कल याद दिलाने को,
मुझे अपना बनाने को,
तो सुन लो मोहन .....
इन सदियों मे, इन युगों संग बीत चुकी हूँ मैं,
मेरा मन, तन मेरा, मेरे नयन, सब कुछ
चले गए थे तुम्हारे संग, जब तुम गए थे,
मुझे छोड़ कर सदियों पहले,
अब कुछ भी नहीं है मेरे पास जो तुम्हारा था,
फिर भी अगर कुछ चाहते हो तो चलो,
एक फैसला करते हैं,
एक गलत को सही करते हैं,
एक इतिहास को बदलते हैं,
आने वाली नयी सदी मेरी होगी,
तुम मेरे लिए यहीं जड़ होगे,
मुझे मँगोगे, एक झलक के लिए तरसोगे मेरी,
मेरा भाग्य तुमसे निर्मित नहीं होगा,
मैं तुम्हारे नाम से जानी नहीं जाऊँगी,
तुमको चाहूंगी टूटकर मैं भी,
बस इस बार सर्वस्व नहीं वारूँगी,
थोड़ा कुछ अपना रख लूँगी अपने लिए भी,
औए फिर तुमसे मिल कर, तुम्हें समझा कर, मना कर तुम्हें,
चली जाऊँगी एक सुबह,
अपने कर्तव्य पालित करने के लिए  मैं......

1 comment:

Himani k said...

akhiri ki 2 lino me sachmush ansoo aa gye meri ankho me.. :)