Sunday, August 11, 2013

मेरे हिस्से की धूप

एक अरसे के बाद मिली है आज मुझे,
मेरे हिस्से की धूप...
जो मैंने बांध लिया था खुद को
खुद ही मे....कस कर,
छुपा लिया था अपना सिर अपने ही घुटनों मे,
और आँखें ऊपर उठा कर देखना भूल गयी थी,
सारी खिड़कियाँ, सब झरोखे    
बंद थे मेरे अपने ही मन मे,
और बाहर निकालने के लिए उस कमरे मे,
कोई दरवाज़ा भी नहीं था...
कोसती रही थी खुद ही को मैं उन सब गलतियों के लिए
जो कभी मेरी थी ही नही...
बांध कर एक पेड़ के मोटे तने से,
अपने जिस्म पर, अपने मन पर, अपने अस्तित्व पर,
हंटर बरसा रही थी मैं,
बरसों से...बरसों तक.....बिना रुके.....
इन गहन अँधेरों मे, इन सुनसान घड़ियों मे,
मेरे सारे वहम, मेरे सारे डर
जो अपने पाँव जमाने लगे थे,
परत दर परत....
और मुझे खा कर चट कर रहे थे,
मुझे खोखला कर रहे थे
परत दर परत.....
फटे हुए कुछ चीथड़ों मे ही
मैंने बचाए रखा था अपने वजूद को,
पल पल लड़ती रही कि फैल न पाये
मेरे भीतर का ये अंधेरा मेरे चारों ओर....
दीमक की तरह खत्म न कर दे कहीं
ये मेरे विश्वास को....
अब जो लगा कि बिखर रहीं हूँ मैं
टुकड़े टुकड़े हो कर,
थक गयी हूँ लड़ते लड़ते, अपने आप से
ना जाने कैसे, चुपके से, दबे पाँव,
किसी टूटे हुए छेद से शायद
आ पहुंची मेरे पीछे से....
मुझको वापस बुलाने, मेरा खोया हुआ विश्वास लौटाने,
एक आशीर्वाद सरीखी, गर्म और मुलायम,
मेरे सब संघर्षों का समफल,

मेरे हिस्से की धूप.....

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